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कविता

गउवाँ गिरउवाँ

विद्या विंदु सिंह


गउवाँ गिरउवाँ सहर भये बाबा।
सहर भये बाबा, जहर भये बाबा॥

कागा ना बोलैं, न बाँचैं सगुनवाँ,
बइठैं मुड़ेरिया न उतरैं अँगनवाँ।
दूध भात खोरवाँ नोहर भये बाबा। गउवाँ...

उड़ि गयीं कोइलरि, उजरि गयीं बरिया,
अँखिया म नाचै सब खेतवा कियरिया।
नये-नये देवता उपर भये बाबा। गउवाँ...

नाहीं आये हरदी नेवत लिहे बभना
टूटि गयी निनियाँ न पूर भये सपना
मन जइसे खुटिया कै हर भये बाबा। गउवाँ...

छूटि गयीं बाबा ! तुहार चौपरिया,
निबिया, जमुनिया और सखी सहेलरिया।
फुलवा करेजवा बजर भये बाबा। गउवाँ...

महुवा के फूल चूवै, डहकै परसवा,
रोज-रोज गोरिया, निहारै अकसवा।
चढ़तै चइतवा दुसर भये बाबा। गउवाँ...

सोन्ह-सोन्हे महकै, असढ़वा कै माटी,
बजर करेजवा, अकेल दिन काटी।
कहहीं के गोंइड़ा, उसर भये बाबा। गउवाँ...

मनवै म महकै, कुवरवा कै रतिया,
अँगना कै चुटकी, ओसरवा कै बतिया।
सब सुख यहर वहर भये बाबा। गउवाँ...

कइसे केहू रहिया बचाइ चले बाबा
नेहिया कै दियना लेसाइ चले बाबा
नये नये चोरवा जबर भये बाबा। गउवाँ...
 


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